मनवांछित फल पाइये जो कीजै इहि सेव", एक अद्भुत शिल्प है "सांझी"
मनवांछित फल पाइये जो कीजै इहि सेव", एक अद्भुत शिल्प है "सांझी"
-ब्रज क्षेत्र में पितृपक्ष के दौरान मनाया जाता है सांझी कला का उत्सव
मथुरा । "मनवांछित फल पाइये जो कीजै इहि सेव, सुनौ कुंवरि वृषभानु की यह सांझी सांचौ देव" सांझी ब्रज का एक अद्भुत लोक शिल्प है, पितृपक्ष में सांझी कला का उत्सव भी मनाया जाता है, गांव से शहर तथा मठ मंदिरों तक कला जीवंत हो उठती है, वृन्दावन नगरी के मंदिरों में फूलों व रंगों से पानी के ऊपर व पानी के नीचे कलात्मक सांझियां तैयार कीं जाती हैं, यहां के राधाबलभ मंदिर, भट्टजी की हवेली, राधारमण, गोपीनाथजी (वल्लभ कुल) मंदिर, शाहजहांपुर वाले मंदिर, प्रियाबल्लभ कुंज व यशोदानंदन मंदिर आदि मंदिरों में सांझी मनोरथ की पुरानी परम्परा है जो आज तक की युवा पीढ़ी इस कला को निभाती चली आ रही है ।
सांझी शब्द सांझ से बना है, सांझ अर्थात शाम का समय अथवा संध्या जो ब्रज में प्रचलित है, भगवान श्रीकृष्ण से संबंधित सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होने के फलस्वरूप ब्रज क्षेत्र प्राचीनकाल से ही विभिन्न लोक शैलियों का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है, हस्तकला, संगीत, वास्तुकला, शिल्पकला इत्यादि उनमें प्रमुख हैं, लोकनायक भगवान श्रीकृष्ण का नाम कण-कण में गूंजते ही लताओं से भरे उद्यान, यमुना नदी, नदी के तीर पर उनकी बाल लीलाओं के स्थल, ब्रज की पावन भूमि आज भी सभी दृश्य नैनों के समक्ष प्रकट होने लगते हैं, अष्टकोणीय आकृति होने से ब्रज के रसिक संतों ने तो इसे ‘वैष्णव-यंत्र’ तक कह डाला है ।
16वीं सदी में भक्ति आंदोलन के काल में इन कलाओं की व्यापक प्रगति हुई थी, इसका प्रमुख कारण यह था कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों से भिन्न कला में निपुण कला प्रेमी ब्रज में एकत्र होते थे, कृष्ण के प्रेम एवं भक्ति के परमानन्द में सराबोर भक्तों का यह प्रमुख केंद्र बन गया था, कृष्ण के प्रति भक्तों का स्नेह अपनी चरम सीमा में होता था, आज सिर्फ यहां लोग दर्शन करने, समय पास करने व साप्ताहिक छुट्टियां बिताने या आनन्द प्राप्ति व मनोरंजन के लिए ही आते हैं, मान्यता के अनुसार जब श्रीकृष्ण गौ चारण करके लौटे थे तो गोधूलि बेला में राधारानी गोपिकाओं के साथ मार्ग को विभिन्न प्रकार के पुष्पों से सजा देतीं थीं जिसे देख श्रीकृष्ण तथा ग्वालों की मण्डली आनंदित होती थीं, आज भी मंदिरों में इस परम्परा का निर्वहन किया जाता है, चूँकि यह श्रीराधा जी के द्वारा निर्मित कला की प्रकृति है इसलिए इस सांझी को देवस्वरूप मानकर ब्रज में इसकी पूजा की जाती है ।
सांझी की कला केवल कलात्मक सौन्दर्य ही नहीं है, इस परम्परा से जुड़ीं पदावलियों का गायन इसके महत्व को और अधिक बढ़ता है, ब्रज संस्कृति शोध संस्थान के प्रकाशन अधिकारी एवं साहित्यकार गोपाल शरण शर्मा बताते हैं कि सांझी लोक अनुष्ठान के रूप में प्रचलित ब्रज का एक अद्भुत शिल्प है, इसे विधि विधान पूर्वक मनाया जाता है, देवालयों में सांझी के पदों का गायन किया जाता है, गांवों में बालिकाएं ‘संझा माई’ के गीत गाकर उनकी पूजा करती है, ब्रज की देवालयी रंग सांझी में मिट्टी की अष्ट पहलू वेदी पर बैलों की जटिल ज्यामितीय आकृतियों का निर्माण किया जाता है जिनमें खाकों के माध्यम से सूखे रंगों का संयोजन किया जाता है, श्रीराधाकृष्ण की लीलाओं के प्रसंगों का चित्रण इस केन्द्र में होती हैं, इसी क्रम में प्रत्येक दिन नई आकृतियां जन्म लेतीं हैं, जो शाम के समय सामान्य जन के लिए एक अद्भुत कला संसार और भक्त साधकों के लिए एक भाव संसार की रचना करतीं हैं ।