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नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती पर विशेष
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती पर विशेष
जय हिंद के नारे से राष्ट्रीय चेतना जगाने वाले क्रांतिवीर नेताजी सुभाषचंद्र बोस को नमन
(अतिवीर जैन "पराग"-विनायक फीचर्स)
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक उड़ीसा के एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था, उनके सात भाई और छह बहनें थी l वह अपने माता पिता की नौवीं संतान थे, इनके पिता जी का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती था, पिता जानकी नाथ बोस कटक के प्रसिद्ध वकील थे, पहले वे सरकारी वकील थे, बाद में उन्होंने सरकार की वकालत छोड़कर अपनी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी, बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे, अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था, 1930 में महात्मा गांधी ने जब सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया तो ब्रिटिश सरकार ने उसे कुचलने के लिए आतंक और दमन का मार्ग अपनाया, इसके विरोध स्वरूप जानकीनाथ ने अपना रायबहादुर का खिताब वापस कर दिया था, अपने सभी भाइयों में सुभाष को सबसे अधिक लगाव दूसरे नंबर के भाई शरद चंद्र बोस से था ।
नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक से ही पूरी की और उसके बाद वे कोलकाता चले गए जहां पर प्रेसीडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र में 1919 में स्नातक किया, l सितंबर 1919 में नेताजी भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस ) के लिए इंग्लैंड पढ़ने चले गए, 1920 में आवेदन कर इस परीक्षा में उन्होंने चौथा स्थान प्राप्त किया, पर जलियांवाला बाग के नरसंहार से व्यथित और भारत की आजादी के लिए व्याकुल नेताजी ने 1921 में भारतीय सिविल सेवा से इस्तीफा दे दिया, l जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ऑनर्स की डिग्री लेकर सुभाष चंद्र वापस स्वदेश लौट आए ।
भारत लौटकर आने के बाद वे स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद गए, रविंद्रनाथ टैगोर की सलाह पर सबसे पहले मुंबई गए और महात्मा गांधी से मुलाकात की, महात्मा गांधी मुंबई में मणिभवन में रहते थे, जहां 20 जुलाई 1921 को सुभाष चंद्र की गांधी जी के साथ पहली मुलाकात हुई, गांधी जी ने उन्हें कोलकाता जाकर चितरंजनदास के साथ काम करने की सलाह दी, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को ज्वाइन किया, नेताजी श्री देशबंधु चितरंजनदास को अपना राजनीतिक गुरु और स्वामी विवेकानंद को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे ।
ब्रिटिश राज सिंहासन के वारिस प्रिंस ऑफ वेल्स के नवम्बर 1921 में भारत दौरे का ऐलान किया गया, कांग्रेस ने इस दिन युवराज के मुंबई में उतरने के दिन सम्पूर्ण हड़ताल का आव्हान कर दिया, कोलकाता में देशबंधु के साथ सुभाष चंद्र ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया, दिसंबर 1921 के दूसरे हफ्ते में देशबंधु तथा अन्य नेताओं के साथ सुभाष को भी गिरफ्तार कर लिया गया और अलीपुर की सेंट्रल जेल में रखा गया, आठ महिनों बाद इन्हें जेल से छोड़ा गया, य़ह सुभाष की पहली गिरफ्तारी थी, अपने जीवन मे सुभाष की कुल ग्यारह बार गिरफ्तारी हुई, इसी के साथ सुभाष चंद्र बोस देश के बड़े नेताओं में शामिल हो गये ।
सन 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में संपन्न हुआ इस अधिवेशन में गांधी जी ने अंग्रेजों से भारत को डोमिनियन स्टेट का दर्जा देने की मांग की लेकिन सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज की मांग की बात कर रहे थे, अंत में तय हुआ कि अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टेट देने के लिए एक साल का वक्त दिया जाए और अगर एक साल में अंग्रेज सरकार नहीं मानती है तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी ।
अंग्रेज सरकार ने एक साल में यह मांग नहीं पूरी की इसलिए 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ तब तय किया गया कि 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा, 26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्रध्वज फहराकर सुभाष चंद्र एक विशाल मोर्चे का जब नेतृत्व कर रहे थे, पुलिस ने उन पर लाठी चलाई और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया, जब सुभाष जेल में थे तब गांधी जी ने अंग्रेज़ सरकार से समझौता कर लिया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया, l 5 नवंबर 1925 को देशबंधु चितरंजनदास कोलकाता में चल बसे, उस समय सुभाषचंद्र बोस मांडले जेल में थे, सुभाषचंद्र बोस की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई और उन्हें तपेदिक हो गया, फिर भी अंग्रेज सरकार ने उन्हें रिहा करने से मना कर दिया ।
अंग्रेज सरकार ने शर्त रखी कि यदि सुभाष इलाज के लिए यूरोप जाए तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा लेकिन सुभाष चंद्र ने ऐसा स्वीकार नहीं किया और अंत में उनकी ज्यादा हालत खराब होने पर अंग्रेजी सरकार ने सुभाष चंद्र को रिहा कर दिया और सुभाष इलाज के लिए डलहौजी चले गए, 1930 में जब सुभाष चंद्र बोस जेल में थे तो कोलकाता में उन्होंने महापौर का चुनाव जेल से ही लड़ा और जीत गए, सरकार को उन्हें जेल से रिहा करना पड़ा, 1932 में सुभाष को फिर से जेल भेजा गया इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया वहां उनकी तबीयत खराब हो गई और चिकित्सकों की सलाह पर उन्हें इलाज के लिए यूरोप जाने जाना पड़ा, सन 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में ही रहे, 1934 में सुभाष चंद्र को अपने पिता की तबीयत खराब होने की खबर मिली, खबर सुनते ही वह हवाई जहाज से कराची से होते हुए कोलकाता लौटे, जहां अंग्रेज सरकार ने उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया ।
कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में 1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, इस दौरान उन्होंने राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया, 1939 के त्रिपुरा अधिवेशन में भी सुभाष चंद्र बोस को दोबारा कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया, गांधीजी चाहते थे कि सीतारमैया अध्यक्ष बने, सुभाष चंद्र बोस को चुनाव में 1580 मत मिले और सीतारमैया को 1377 मत मिले, इस प्रकार गांधी जी के विरोध के बावजूद सुभाष चंद्र 203 मतों से अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गए थे, तभी विश्व युद्ध शुरू हो गया, नेताजी ने अंग्रेजों को छह महीने का अल्टीमेटम देश छोड़ने का दिया, नेताजी के अल्टीमेटम का गांधीजी ने विरोध किया जिससे इन्होंने कांग्रेस की अध्यक्षता छोड़ दी और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, कुछ दिन बाद ही सुभाष चंद्र को कांग्रेस से निकाल दिया गया और फॉरवर्ड ब्लॉक एक स्वतंत्र पार्टी बन गई, सुभाष चंद्र बोस ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों द्वारा भारत के संसाधनों का उपयोग करने का घोर विरोध किया और जनआंदोलन शुरू कर दिया इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें कोलकाता के घर में नजरबंद कर दिया ।
1941 में सुभाषचंद्र बोस किसी तरह अंग्रेजों की कैद से छूटकर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुंच गए, 1941 के अंत में बर्लिन में उन्होंने फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की, यहीं से 'जन गण मन 'को भारत का राष्ट्रगान घोषित किया, देश को जय हिंद का नारा भी नेताजी ने ही दिया, यहीं पर सुभाष चंद्र बोस को 'नेताजी ' की उपाधि दी गई, मई 1942 में जर्मनी में सुभाषचंद्र बोस ने हिटलर से मुलाकात की, हिटलर से उन्हें कोई सकारात्मक सहयोग नहीं मिला, इसी दौरान सुभाषचंद्र बोस की भेंट ऑस्ट्रेलिया की महिला एमिली से हुई जो उनकी सचिव रही,और बाद में नेताजी ने उनसे शादी कर ली जिससे उनके एक बेटी अनिता बोस हुई ।
26 जनवरी 1943 को बर्लिन में भारतीय स्वाधीनता दिवस धूमधाम से मनाया गया जिसमें नेता जी ने मुख्य भाषण दिया और उसके बाद जापान चले गए, जून 1943 में नेताजी की मुलाकात जापानी प्रधानमंत्री से हुई, जहां उन्होंने भारत की संपूर्ण स्वाधीनता पाने के लिए बिना शर्त पूरे समर्थन की अधिकृत घोषणा की, यह उस समय के परिप्रेक्ष्य में बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय घटना थी, किसी भी विदेशी शासन प्रमुख द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इस प्रकार भारत को बिना शर्त पूरा समर्थन देने की घोषणा की गई थी, हालांकि गांधीजी इस प्रकार की कोई भी घोषणा ब्रिटिश सरकार या उसके मित्र देशों से नहीं करवा पाए थे, य़ह नेताजी की एक बड़ी जीत थी, इसके बाद नेताजी ने अपनी मौजूदगी जगजाहिर कर दी और नागरिक रेडियो पर अपना विशेष प्रसारण किया, जुलाई 1943 में नेताजी सिंगापुर पहुंच गए, जहां रासबिहारी बोस इंडियन नेशनल आर्मी आजाद हिंद फौज के अफसरों और नेताओं ने नेताजी का स्वागत किया, आजाद हिंद फ़ौज में अंग्रेजी सेना में कार्यरत वे भारतीय सैनिक थे जिन्हें जापान ने बंदी बनाया था ।
पांच जुलाई 1943 को नेताजी के जीवन का सर्वाधिक वैभवशाली दिन था, उस दिन सिंगापुर टाउन हॉल के एक बड़े मैदान में उन्होंने सर्वोच्च सेनापति सुप्रीम कमांडर के रूप में आजाद हिंद फौज की सलामी ली, यही पर उन्हें नेताजी का नाम दिया गया, उन्होंने अपनी फ़ौज को संबोधन में कहा था "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा ", उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की कब्र बनाने का आव्हान सैनिकों से किया, 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में एक ऐतिहासिक सभा में उन्होंने आजाद प्रथम अंतरिम आजाद हिंद सरकार की स्थापना का ऐलान किया, इस अंतरिम सरकार को विश्व के तीन प्रमुख देश जापान, जर्मनी और इटली समेत कुल 9 देशों ने मान्यता प्रदान कर दी, इस प्रकार दो सौ वर्ष में भारत के स्वाधीनता सेनानियों को अपने स्वाधीन राष्ट्र की अनुभूति हुई थी, आजाद हिंद सरकार की पहली घोषणा थी अमेरिका और ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध, 22 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजीमेंट का औपचारिक उद्घाटन किया जिसमें भारतीय महिलाओं की भागीदारी थी ।
आजाद हिंद सरकार की स्थापना के बाद आजाद हिंद बैंक ने ₹10 से लेकर ₹1,00,000 तक के नोट के जारी किए l और ₹1,00,000 के नोट में नेताजी की तस्वीर छापी गई थी, 29 दिसंबर 1943 को नेताजी अंडमान पहुंचे यहां राष्ट्र अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जिमखाना मैदान में भारी जन समुदाय के बीच राष्ट्रीय तिरंगा फहराया, नेताजी ने अंडमान को "शहीद दीप समूह " तथा निकोबार को "स्वराज दीप समूह" का नया नाम दिया था, जनवरी 1944 में नेताजी अपना मुख्यालय सिंगापुर से भारत के नजदीक रंगून(तत्कालीन बर्मा,अब म्यांमार) में ले आए, आजाद हिंद फौज ने 18 मार्च 1944 को इंफाल के रास्ते भारत में प्रवेश किया, जापान की हार के कारण नेताजी का आजाद हिंद फौज के द्वारा स्वतंत्रता का सपना पूरा ना हो पाया ।
ऐसा माना जाता है कि 18 अगस्त 1945 को जापान जाते समय नेताजी का विमान ताइवान में क्रैश हो गया परंतु उनका शरीर नहीं मिला और तब से लेकर आज तक उनकी मृत्यु एक विवाद और रहस्य का विषय बनी हुई हैं,पर नेताजी का यह संघर्ष व्यर्थ नहीं गया, उनके जय हिंद नारे से राष्ट्रीय चेतना जागृत हो गई और 1946 के आरंभ तक जैसा कि नेता जी ने सोचा था रॉयल इंडियन एयर फोर्स तथा रॉयल इंडियन नेवी में खुला विद्रोह हो गया, भारतीय सशस्त्र सेनाओं की वफादारी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ओर हो गई, इस प्रकार भारत ने नेताजी के जाने के बाद भी नेताजी का सोचा हुआ सामरिक लक्ष्य पा लिया और अंत में अंग्रेजों को अगस्त 1947 में भारत छोड़कर जाना पड़ा ।
आज भी जय हिंद का उद्घोष जनमानस में जोश भरने और देश प्रेम की भावना को जीवित करने का साधन बना हुआ है, अपनी क्रांतिकारी सोच के कारण नेताजी ने उस समय के जनमानस को उद्वेलित किया और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को प्रेरित किया जिसने भारत की आजादी में उत्प्रेरक का काम किया, उनकी विचारधारा भारतीय जनमानस में सदा बसी रहेगी, देश आज भी नेताजी को एक क्रांतिकारी नेता के रूप में याद करता है और सदा करता रहेगा ।
(विनायक फीचर्स) (लेखक पूर्व उपनिदेशक, रक्षा मंत्रालय हैं)