क्या होता है मारवाड़ी होना, मारवाड़ी सिर्फ जैन मुनि से ही प्रभावित क्यों है
ओशो के प्रवचन में जन्म से मारवाड़ी महिला सत्यप्रिया ने जब पूछा कि क्या मारवाड़ियों में कुछ भी प्रशंसाऱ्योग्य नहीं होता है? तब ओशो ने बताया मारवाड़ी होने का वास्तविक अर्थ।
वे बोले सत्य प्रिया!
तू फिक्र छोड़, पागल! तू अब मारवाड़ी नहीं है। कितनी बार तुझे कहूं? कोई मारवाड़ में पैदा होने से थोड़े ही मारवाड़ी होता है। मारवाड़ी होना बड़ी साधना की बात है। यह कोई सरल मामला नहीं है कि हो गए मारवाड़ में पैदा और मारवाड़ी हो गए।
तू तो बिलकुल मारवाड़ी नहीं है–न तेरे पिता मारवाड़ी हैं, न तेरी मां मारवाड़ी हैं। होते मारवाड़ी तो मेरे संन्यासी नहीं हो सकते थे। मारवाड़ी और मेरा संन्यासी–असंभव! मारवाड़ी तो पहले शर्तबंदी करता है; वह तो सौदा करता है। और संन्यास तो जुआ है, सौदा नहीं है।
एक सज्जन ने पत्र लिखा है कि आपकी शर्त है संन्यास में कि गैरिक वस्त्र पहनूं, तो मेरी भी शर्त है कि जब तक मुझे समाधि नहीं दिलवाएंगे तब तक संन्यास नहीं लूंगा।
ये हैं मारवाड़ी! अब ये कहीं भी पैदा हुए हों, इससे क्या फर्क पड़ता है? मारवाड़ी दुनिया के हर कोने में पैदा होते हैं। मारवाड़ी बड़ी घटना है, कुछ मारवाड़ में ही सीमित नहीं है। मारवाड़ और मारवाड़ी का संबंध तू तोड़ दे। यह भौगोलिक मामला नहीं है। मारवाड़ी होना एक मनोवैज्ञानिक घटना है। अब यह आदमी मारवाड़ी है। अब यह कहता है: पहले मुझे समाधि मिलनी चाहिए, तब मैं गैरिक वस्त्र पहनूंगा!
फिर किसलिए गैरिक वस्त्र पहनोगे? मुझे सताने को? फिर क्या कारण है गैरिक वस्त्र पहनने का? जब समाधि ही मिल गई तुम्हें, तो गैरिक वस्त्र किसलिए पहनोगे? फिर तो जैसा दिल चाहे, चाहे महावीर जैसे नंग-धड़ंग घूमना, तो भी कोई अड़चन नहीं है। बुद्ध जैसे पीले वस्त्र पहनना, तो पीले वस्त्र पहनना। और कृष्ण जैसे अगर शृंगार करना हो तो शृंगार करके, बाल इत्यादि संवार कर स्त्रियों जैसे, मोर-मुकुट बांध कर घूमना। जब समाधि ही मिल गई तो अब क्या गैरिक वस्त्र पहनना है और किसलिए पहनना है?
संन्यास इसलिए है कि तुम समाधि की तरफ यात्रा कर सको। और यह आदमी मारवाड़ी है; यह कहता है–पहले समाधि, तब मैं गैरिक वस्त्र पहनूंगा! जैसे गैरिक वस्त्र पहनाने में मेरा रस हो। तो उसके लिए समाधि तक इन्हें देनी पड़ेगी पहले! जैसे मेरा कुल काम और मेरा कुल रस और कुल लक्ष्य इतना है कि लोग गैरिक वस्त्र पहनें। समाधि नहीं, गैरिक वस्त्र अंतिम लक्ष्य है जीवन का! ये समाधि को तो दो कौड़ी की बात समझते हैं। ये तो समाधि को भी शर्त बना रहे हैं गैरिक वस्त्र पहनने की। ये हैं मारवाड़ी, सत्य प्रिया! तू नहीं है मारवाड़ी।
और मारवाड़ियों में किसने कहा कि कुछ भी प्रशंसाऱ्योग्य नहीं होता? बड़ी गजब की चीजें होती हैं।
चंदूलाल मारवाड़ी और ढब्बूजी एक होटल में खाना खा रहे थे। जब खाना खा चुके तो बैरे ने उनके हाथ धुलाए और खूंटी से कोट उतार कर खुद अपने हाथों से चंदूलाल मारवाड़ी को पहनाया। चंदूलाल बैरे पर बहुत खुश हुए और उसे ईनाम के रूप में नगद अठन्नी भेंट दी।
ढब्बूजी तो यह देख कर आश्चर्यचकित रह गए, बोले कि चंदूलाल, मारवाड़ी होकर यह क्या करते हो? मित्र भी मारवाड़ी थे। कहा, क्या बाप-दादों की कमाई इस तरह बर्बाद कर दोगे? ये कोई ढंग हैं? आखिर बैरे को आठ आना ईनाम देने की क्या जरूरत थी? अरे बहुत से बहुत दस पैसे से काम चल जाता। उसकी भी आदत बिगाड़ी, अपने बाप-दादों के धन को भी खराब किया। और मुझको भी शघमदा होना पड़ रहा है तुम्हारी वजह से; अब मैं दस पैसे दूं तो लगता है कंजूस हूं। तुम्हें शर्म नहीं आती?
चंदूलाल मारवाड?ी ने मुस्कुरा कर ढब्बूजी से कहा, नाहक नाराज हो रहे हो, अरे आठ आने में यह कोट क्या मंहगा है? कोट तो मैं घर से लाया ही नहीं था। और ये आठ आने भी इसी कोट में से निकाल कर दिए हैं। अपने बाप का इसमें कुछ भी नहीं है।
गजब की चीजें होती हैं मारवाड़ियों में!
चंदूलाल मारवाड़ी कार से अपने घर वापस लौट रहे थे। रास्ते में एक सभ्य से दिखने वाले व्यक्ति ने उनसे लिफ्ट मांगी, उन्होंने लिफ्ट दे दी। देना तो नहीं चाहते थे, क्योंकि मारवाड़ी इतनी आसानी से किसी को लिफ्ट दे दे! अरे बैठेगा तो सीट भी घिसेगी न! मगर संकोचवश न न कर सके, इनकार न कर सके। टैक्सियों की हड़ताल थी, इसलिए संकोच खाना पड़ा।
कुछ दूर आगे बढ़ने पर चंदूलाल ने समय देखने के लिए घड़ी देखी–यह देखने के लिए कि यह दुष्ट कितनी देर बैठेगा? कितना बजा है और कितनी देर बैठ कर कितनी सीट खराब करेगा? न केवल वह सीट खराब कर रहा था, बल्कि चंदूलाल का अखबार भी पढ़ रहा था। उससे भी उनके प्राणों पर बहुत मुसीबत आ रही थी। दिल ही दिल में कह रहे थे कि अगर बड़े पढ़क्कड़ हो तो अपना अखबार खरीदा करो। मगर कह भी नहीं सकते थे कि अब कहना क्या है! अब इतनी की है उदारता, तो इतनी सी बात में अब क्या कंजूसी दिखाना, पढ़ लेने दो! ऐसे भी मैं पढ़ चुका हूं, अपना क्या बिगड़ता है!
घड़ी देखने के लिए कलाई टटोली, लेकिन कलाई पर घड़ी न थी। चंदूलाल तो एकदम कड़क कर बोले–गुस्सा तो हो ही रहे थे, एकदम कड़क गए, एकदम चिल्ला कर बोले–चल बे, घड़ी निकाल! हरामजादे कहीं के!
उस सीधे-सादे आदमी ने जल्दी से घड़ी निकाल कर दे दी। चंदूलाल ने उस बदमाश को वहीं गाड़ी से नीचे उतार दिया।
घर पहुंचे तो गुलाबो बोली कि आज तो आपको दफ्तर में बड़ी तकलीफ हुई होगी, क्योंकि घड़ी तो आप घर पर ही भूल गए थे।
होती हैं, खूबी की चीजें होती हैं!
चंदूलाल मारवाड़ी अपने मुनीम की योग्यताओं से बड़े प्रभावित थे। जब मुनीम को कार्य करते हुए पूरे बीस साल हो गए तो उन्होंने उसे बुलवाया और कहा कि श्यामलाल जी, आज आपको हमारे यहां काम करते-करते बीस साल हो गए। यह मेरी जिंदगी में पहला मौका है कि इतनी कम तनख्वाह में किसी ने इतने समय तक किसी के यहां नौकरी की हो। हम सोचते हैं कि आपके लिए कुछ किया जाए। हम सोचते हैं क्यों न आज से आपको स्वामीभक्ति के उपहार की बतौर श्याम की बजाय श्यामबाबू कह कर बुलाया जाए!
नसरुद्दीन पूरे पंद्रह वर्ष के बाद अपने मित्र चंदूलाल से मिलने के लिए आया। दरवाजे पर दस्तक दी, दरवाजा खुला और चंदूलाल मारवाड़ी की पत्नी गुलाबो बाहर आई। नसरुद्दीन ने नमस्ते की और कहा, क्या चंदूलाल जी घर पर हैं?
गुलाबो आंखों में आंसू भर कर बोली कि क्या आपको पता नहीं कि आज से तीन साल पहले उनका स्वर्गवास हो गया? हुआ यह कि घर में कुछ मेहमान आए हुए थे और उनमें से किसी ने हरी मिर्च की मांग की थी। हरी मिर्च लेने के लिए बगीचे में गए तो गए ही गए। वहीं उनका हार्टफेल हो गया। सच बात यह है कि हरी मिर्च उन्होंने खुद ही बगीचे में लगाई थी और अपनी आंखों से वे यह नहीं देख सकते थे कि उनकी हरी मिर्च इस तरह ये मेहमान बर्बाद करें।
नसरुद्दीन की आंखों में भी आंसू आ गए और वह सहानुभूति प्रकट करते हुए बोला कि बड़ा दुख हुआ यह सुन कर। मगर क्या आप बताएंगी कि फिर इसके बाद क्या हुआ?
गुलाबो बोली, हूं, होता क्या? यही हुआ कि फिर हम लोगों ने हरी मिर्च की बजाय लाल मिर्च से ही काम चलाया।
होते हैं गजब के लोग मारवाड़ी! सिद्ध पुरुष समझो! मगर तू सत्य प्रिया, चिंता छोड़ दे। तुझे ये गजब की चीजें नहीं सीखनी हैं। तू तो अब मेरे हाथों में पड़ गई है, जहां कुछ भूल-चूक से भी मारवाड़ की छाप रह गई होगी तो धुल जाएगी। मारवाड़ियों को तो मैं धोने में लगा ही रहता हूं। क्योंकि कितना ही इनको धोओ, पर्त पर पर्त धूल की निकलती चली आती है।
मैं तो मारवाड़ में बहुत भ्रमण किया हूं। एक से एक गजब के लोग! कहानियां ही सुनी थीं पहले, फिर आंखों से दर्शन करके बड़ी तृप्ति हुई। सच में ही पहुंचे हुए लोग हैं। झूठी ही बातें नहीं हैं उनके बाबत जो प्रचलित हैं। अतिशयोक्ति उनके संबंध में की ही नहीं जा सकती, वे हमेशा अतिशयोक्ति से एक कदम आगे रहते हैं। मेरा भी अनुभव यही है कि महा कंजूस! हद दर्जे के कंजूस! धन को यूं पकड़ते हैं जैसे कोई परमात्मा को भी न पकड़े।
धन को पकड़ना एक ही बात की सूचना देता है कि भीतर गहन दुख है, पीड़ा है। आनंदित व्यक्ति न धन को पकड़ता है, न पद को पकड़ता है। आनंदित व्यक्ति को जो मिल जाए उसको भोगता है; जो मिल जाए उसका आनंद लेता है। आनंदित व्यक्ति धन का दुश्मन नहीं होता, न धन को पकड़ता है, न धन को छोड़ कर भागता है।
मारवाड़ी या तो धन को पकड़ेगा या धन को छोड़ेगा। धन को पकड़ेगा तो यूं पकड़ेगा कि वही सब कुछ है। और किसी दिन भयभीत हो जाएगा। और हो ही जाएगा किसी दिन भयभीत, क्योंकि जब मौत करीब आने लगेगी तो दिखाई पड़ेगा–मैंने जीवन अपना यूं ही गंवा दिया। तो फिर धन को छोड़ेगा, फिर ऐसा भागेगा छोड़ कर…। वह भागता भी इसी डर से है कि अगर नहीं भागा तो फिर पकड़ लेगा।
इसलिए मारवाड़ में जैन मुनि का सम्मान है। मारवाड़ अड्डा है जैन मुनियों का। और जैन मुनियों का अड्डा होने का कारण है, क्योंकि मारवाड़ी सिर्फ जैन मुनि से प्रभावित होता है। वह कहता है, वाह, क्या गजब का त्याग है! क्योंकि वह दस पैसे नहीं छोड़ सकता और इन्होंने सब छोड़ दिया। स्वभावतः इनके प्रति उसके मन में बड़ा आदर भाव पैदा होता है।
यह हैरानी की बात है कि इस दुनिया में जितने लोभी लोग हैं, वे हमेशा त्यागियों का सम्मान करते हैं। इस अर्थों में इस पूरे देश में कुछ न कुछ मारवाड़ीपन है। इस देश में त्यागियों का इतना सम्मान इस बात का सबूत है कि हमारी धन के प्रति बड़ी लालसा है, बड़ा लोभ है। उस लोभ के कारण ही, जो उसको छोड़ने में समर्थ हो जाता है, हम कहते हैं कि इसने गजब का काम कर दिया! चमत्कार कर दिखाया, जादू कर दिया!
और वह सिर्फ इसलिए भाग रहा है कि अगर रुका तो फिर पकड़ लेगा। वह सब तरह की बागुड़ लगा रहा है अपने चारों तरफ, ताकि धन को फिर से न पकड़ ले। और यह सम्मान भी बागुड़ का हिस्सा बन जाता है। ये जो सम्मान देने वाले लोग हैं, ये भी कहते हैं कि अब हम इतना सम्मान दे रहे हैं, अगर फिर से पकड़ा धन को तो इतना ही अपमान देंगे।
इस देश को छुटकारा चाहिए–लोभ से भी और त्याग से भी। मेरी पूरी चेष्टा यही है। इसलिए मेरे खिलाफ भोगी भी होंगे और योगी भी होंगे। मुझे संसारी लोग भी गाली देंगे और मुझे तुम्हारे तथाकथित महात्मागण भी गाली देंगे, क्योंकि वे दोनों ही मारवाड़ीपन के दो छोर हैं। मेरा कहना यह है कि न तो भोग के लिए दीवाना होने की जरूरत है, न त्याग के लिए दीवाना होने की जरूरत है। हो हाथ में कुछ तो उसका आनंद लो, न हो तो न होने का आनंद लो। महल हो तो महल सही। क्यों छोड़ना! और न हो महल, वृक्ष के नीचे सोना पड़े, तो खुली हवा का मजा लो! खुले आकाश का मजा लो! खुले तारों का!
लेकिन लोग अजीब पागल हैं! महल में रहेंगे तो उनके मन में यह वासना बनी रहती है कि कब इसको छोड़ें, ताकि जाकर खुले आकाश के नीचे सोएं! और खुले आकाश के नीचे सोएंगे तो उनके भीतर आकांक्षा बनी रहती है कि कब महल में रहें! कब, कैसे महल में प्रवेश हो जाए!
मैं इस देश की–और इस देश की ही क्यों, सारी दुनिया की–इन दोनों अतियों से मुक्ति चाहता हूं। मैं चाहता हूं: व्यक्ति सम्यक हो, स्वस्थ हो। और स्वस्थ व्यक्ति ही मेरी दृष्टि में संन्यासी है। संन्यास अर्थात परम स्वास्थ्य–स्वयं में स्थिर हो जाना। कोई अति नहीं–न लोभ की, न त्याग की; न वासना की, न ब्रह्मचर्य की; न संसार की, न महात्मापन की। ऐसा अति सामान्य हो जाना, जैसे हूं ही नहीं। उस न होने में ही प्रभु-मिलन है, प्यारे का मिलन है।
पिय को खोजन मैं चली, आपुई गई हिराय!
जो भी उसे खोजने चला है, उसे अपने को खो देना पड़ता है। और यह ढंग है खोने का: मध्य में हो जाना अपने को खो देना है। अति पर गए कि अहंकार बच जाएगा। भोगी का भी अहंकार नहीं मरता, त्यागी का भी नहीं मरता है। सच तो यह है, भोगी से भी ज्यादा अहंकार त्यागी का होता है। अहंकार की मृत्यु परमात्मा का अनुभव है। धन्यभागी हैं वे जिनका अहंकार मर जाता है, और जो अपने अहंकार को मर जाने देते हैं। उससे बड़ा कोई सौभाग्य नहीं है।